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फ़सल के ओले / रमेश रंजक

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उफ़ !
अधपकी फ़सल के ओले
भरी सभा में फेंके
ज़ालिम बादल ने हथगोले

जौ की टूटी रीढ़
हरे गेहूँ को चक्कर आए
फूल चने का खेत रह गया
कौन किसे समझाए

हवा पूस की
कुटी फूस की
काँपे हौले-हौले

झुनिया उल्टा तवा डाल कर
भरे गले से बोली
अबकी बरस न ब्याज पटेगी
नहीं जलेगी होली

नहीं भुकभुके
माँ की चाकी
खाएगी हिचकोले

उफ़ ! अधपकी फ़सल के ओले