फ़स्ल-ए-गुल खाक हुई जब तो सदा दी तू ने / शहजाद अहमद
फ़स्ल-ए-गुल खाक हुई जब तो सदा दी तू ने
ऐ गुल-ए-ताज़ा बहुत देर लगा दी तू ने
तिरी ख़ुश-बू से मिरे दिल में खिले दर्द के फूल
सो गई थी जो बला फिर से जगा दी तू ने
मेरी आँखों में अंधेरे के सिवा कुछ भी न था
इस ख़राबे में ये क्या शम्अ जला दी तू ने
ज़िंदगी भर मुझे जलने के लिए छोड़ दिया
सब्ज़ पत्तों में ये क्या आग लगा दी तू ने
कोई सूरत भी रिहाई की नहीं रहने दी
ऐसी दीवार पे दीवार बना दी तू ने
मैं तेरे हाथ न चूमूँ तो ये ना-शुक्री है
दौलत-ए-दर्द तमन्ना से सिवा दी तू ने
कभी कह दूँ तो ज़माना मिरा दुश्मन हो जाए
दिल को वो बात भी चुप रह के बता दी तू ने
वो तेरे पास से चुप-चाप गुज़र कैसे गया
दिल-ए-बे-ताब क़यामत न उठा दी तू ने
काश् वापस तुझे गोयाई न मिलती ‘श्हज़ाद’
बोल कर आज बहुत बात बढ़ा दी तू ने
उसे कहने के लिए लफ़्ज़ कहाँ से आए
दास्तान-ए-श्ब-ए-ग़म कैसे सुना दी तू ने
उस को भी उस की निगाहों में बहुत ख़्वार किया
अपनी तौक़ीर भी मिट्टी में मिला दी तू ने