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फ़ाउण्टेन पेन की कविता / प्रदीप मिश्र

Kavita Kosh से
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फाउण्टेन पेन को चलाते समय
बहुत ध्यान रखना पड़ता है
ठीक कोण पर टिका हो
अंगुलियों के बीच
निब पर दबाव सही हो
ठीक हो स्याही का बहाव
 
अक्षर बनाने का एक निश्चित तरीका होता है
नहीं तो कागज,निब और अक्षर का
तालमेल बिगड़ जाता है
उंगलियों में लगनेवाली स्याही को
बार-बार पोंछना होता है सिर पर
अक्षर सुन्दर ही बनाने पड़ते हैं
जब लिखा जाता है फाउण्टेन पेन से

इतनी सारी पाबंदियाँ और सुन्दरता की शर्त
ऐसे में भला फाउण्टेन पेन से कोई
कैसे लिख सकता है कविता

कविता लिखते समय तो

एक मासूम सी बच्ची
अचानक गृहस्थी से जूझती औरत में बदल जाती है
                            
उछलते-खेलते नौजवान
कब शामिल हो गए बूढ़ों की जमात में
लिखने के बाद भी पता नहीं चलता

नदी अपने तटबंधों को तोड़कर
इस तरह फैलती है
जैसे उसके अन्दर भरता जा रहा हो समुन्द्र

अपनी धूरी पर घण्टों ठहर कर
सोचती रहती है पृथ्वी
निरंतर घूमते रहने का कारण

इतनी गति
इतना उफान
इतना आक्रोश
इतना ठहराव
ऐसे में कोई कैसे रखेगा
सुन्दरता और पाबंदियों का ध्यान
जब तक हम पूरी करते हैं
सुन्दरता की शर्त

एक मासूम सा खूबसूरत चेहरा
भयानक अठ्ठाहास करने लगता है

जब तक खोलते हैं पाबंदियों की गाँठ
आजादी का उत्सव मनाते लोग
गुलामों की तरह गिड़गिड़ाने लगते हैं

कविता लिखने के लिए
ऐसी कलम चाहिए
जिसमें पहली उड़ान पर पर निकले
चिड़ियों का आकाश बहे
स्याही की जगह

निब डाक्टर के आले की तरह टिकी हो
समय के छाती पर।