फ़ासला / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

मैंने सोचा कि अभी फ़ासला बहुत है मगर
तुमने ये कह कर मुश्किल आसान कर दी
हमारे दर्मियान बस एक क़दम की दुरी है
फ़क़त इस बात ने रूह को हैरान कर दी

अभी सफ़ेद-ओ-स्याह-सा है हर एक मंज़र
अभी कुछ मौसमों पर रंग आना बाक़ी है
अभी तो मुंतज़िर आँखों के मुक़द्दर में ज़रा
हसरत-ए-दीद का एक मुस्कुराना बाक़ी है

ख़ुदा ही जाने क्या बात है इन दिनों अपनी
सुना है कि तुम निगाहों में नमी रखती हो
तुमसे मिलकर थोड़ा-सा ग़म तो कम होगा
सुनहरी ज़ीस्त के दामन में ख़ुशी रखती हो

अपने ख़्वाबों में शबो-रोज़ दिल ने अकसर
अपनी टूटी हुई धड़कन से पुकारा है तुम्हें
बारहा बदलते तमन्ना के तसव्वूर के लिए
तीरग़ी बन कर उजालों से सँवारा है तुम्हें

बहुत वीरान एक पुराना खंडहर की तरह
सूरत-ए-ज़िंदगी बड़ी सूनी नज़र आती है
यही ख़्याल कि आये कोई जलाये चिराग़
बग़ैर नूर के मेरी दुनिया लुटी जाती है

सोचता हूँ किसी रोज़ हसीं क़िस्मत से
ख़ुद को सामने रख कर मिलूँगा तुमसे
वो एक बात जो कहने से होंठ डरते हैं
बड़े सकून से वही बात कहूँगा तुमसे

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