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फ़िक्र सब को है आबो-दाने की / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

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फ़िक्र सबको है आबोदाने की
है हक़ीक़त यही ज़माने की

दर्द है शर्त दिल लगाने की
क्या ज़रूरत है आज़माने की

ठोकरें खा के इस ज़माने की
करते रहते हैं हम वफ़ा नेकी

जिक्र छेड़ो न आदमीयत का
बात है ये गये ज़माने की

अब तो आदत सी हो गई है हमें
मुश्किलों में भी मुस्कुराने की

बात जीने की अब नहीं होती
अब घड़ी आ गई है जाने की

जो तेरे दर से हो के आई थी
आग तो रोज़ उस हवा ने की

नेमते-इश्क़ मुझको बख़्शी है
मुझपे रहमत मेरे ख़ुदा ने की

दर्दो-ग़म आंसुओं से मातम से
कोशिशें हैं यह सच छुपाने की।