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फ़ितना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा / अहमद अज़ीम
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फ़ितना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा
सूरज किसी के पैरहन-ए-चाक से उठा
ये दिल उठा रहा है बड़े हौसले के साथ
वो बार जो ज़मीं से न अफ़्लाक से उठा
सब मोजज़ों के बाब में ये मोजज़ा भी हो
जो लोग मर गए हैं उन्हें ख़ाक से उठा
सूरज की ज़ौ चराग़-ए-शिकस्ता की लौ से हो
क़ुल्ज़ुम की मौज दीदा-ए-नम-नाक से उठा
पूछा जो उस ने अहद-ए-जराहत का माजरा
दरिया लहू का हर रग-ए-पोशाक से उठा