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फागुन और बयार / तारादत्त निर्विरोध
Kavita Kosh से
ठंडी चले बयार,
गंध में डूबे आँगन द्वार
फागुन आया।
जैसे कोई थाप चंग पर देकर फगुआ गाए
कोई भीड़ भरे मेले में मिले और खो जाए
वेसे मन के द्वारे आकर
रूप करे मनुहार
जाने कितनी बार
फागुन आया।
जैसे कोई किसी बहाने अपने को दुहराए
तन गदराए, मन अकुलाए, कहा न कुछ भी जाए,
वैसे सूने में हर क्षण ही
मौन करे शृंगार,
रंगों के अंबार
फागुन आया।