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फागुन का रथ / माहेश्वर तिवारी
Kavita Kosh से
ऐसे पल-छिन
मन से कितना
बोझ अकथ
गुज़रा है
काँप रहे
खिड़की के पर्दे
मेज़ों पर गुलदस्ते
उड़ती हुई
गंध में
खोये
भौंचक हैं चौरस्ते
कहीं पास से
नया-नया फागुन का
रथ गुज़रा है
कानाफूसी, चर्चा
अफ़वाहों वाला
यह मौसम
टेसू की डालों में
बाँध रहा
गीतों का परचम
कितने राख हुए
मोड़ों से
होकर पथ गुज़रा है