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फागुन की हवाओं में - 2 / नीरजा हेमेन्द्र
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क्षितिज का रंग, पुनः
सुनहरा होने लगा है
फूल, चिड़ियां, हवा, बादल
जो हो गये थे अपरिचित्-से
उनसे नाता अब, पुनः
गहरा होने लगा है
गाती थी कोयल
भावनाओं की शाख पर
बैठ कर कभी/ यूँ ही
आज उसके स्वर से
जीवन का सवेरा होने लगा है
न हों बातें अब
साँझ की/सूर्यास्त की
ठहराव की/ समाप्ति की
फागुन की हवाओं में रंगों का
अजब-सा घेरा होने लगा है
आम्र, महुए, पुष्पों की गंध से सराबोर
ओ ! मेरे विस्मृत् पथ
अब तू पुनः
मेरा होने लगा है।