फागुन / बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
अरे ओ निरगुन फागुन मास!
मेरे कारागृह के शून्य अजिर में मत कर वास,
अरे ओ निरगुन फागुन मास!
यहाँ राग रस-रंग कहाँ है?
झांझ न मदिर मृदंग यहाँ है,
अरे चतुर्दिक फैल रही यह
मौन भावना जहाँ-तहाँ है।
इस कुदेश में मत आ तू रस-वश हँसता सोल्लास,
अरे ओ भोले फागुन मास!
कोल्हू में जीवन के कण-कण,
तैल-तैल हो जाते क्षण-क्षण।
प्रतिदिन चक्की के धर्मट में-
पिस जाता गायन का निक्वण,
फाग सुहाग भरी होली का यहाँ कहाँ रस-रास?
अरे ओ, मुखरित फागुन मास!
रामबांस की कठिन गांस में,
मूँज-वान की प्रखर फांस में,
अटकी हैं जीवन की घड़ियाँ,
यहाँ परिश्रम-रुद्ध सांस में।
यहाँ न फैला तू वह अपना लाल गुलाल-विलास,
अरे, अरुणारे फागुन मास!
छाई जंज़ीरों की झन-झन,
डंडा-बेड़ी की यह धन-धन,
गर्रे का अर्राटा फैला,
यहाँ कहाँ पनघट की खन-खन?
कैसे तुझको यहाँ मिलेगा होली का आभास,
अरे, हरियारे फागुन मास!
यह निर्बंध भावना ही की,
चपल तरंगें अपने जी की,
इन तालों-जंगलों के भीतर-
घुँट-घुँट सतत हो गईं फीकी,
अब तू क्यों मदमाता तांडव करता, रे, सायास?
अरे, मतवाले फागुन मास?