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फागुन / सुरेश विमल

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1.
गंध का
गोवर्धन उठाये
विचर रहा है
पवन-गंधर्व...

छलक रहा है
फूलों में
रूप, रस और रंग का
फाल्गुनी पर्व...!

2.
हरित-शाद्वल-पर्यंक पर
फूलों का
बिछौना
भला लग रहा है
इन दिनों
बिखरे हुए सपनों को
फिर
सँजोना।

3
सजे हैं लता-मण्डप
वाटिकाओं में
भद्र जनों से वृक्षगण
ओढ़े खड़े हैं
फूलों का शॉल...

अनंत अवसादों के बीच
आदमी
उत्सव हो गया है
फिलहाल।

4.
गुलाब से मुखड़े पर
गुलाल...

बस्ती का हर बालक
लगे है
टेसू की
खिलखिलाती हुई
डाल...

5.
एक मौन
टूटता है
फागुन में...

रंग और गंध
का सम्वाद
फूटता है फागुन में...!

6.
जीवन के महाभारत में
निहत्थे मन-अभिमन्यु को
टूटे रथ के पहिए-सा
फागुन...!

निराशाओं के
अंध-गह्वरों में
भटकते हुए यात्री को
एक दिया
फागुन।