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फारि फारि खाती हैं / बोली बानी / जगदीश पीयूष
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फारि फारि खाती हैं
द्याँह अब बरइया
सहरन लँग भाजि रही
गाँव गइ चिरइया
गिद्ध बड़े ब्याढब हैं
रोजु नये करतब हैं
पखनन लौ का न कोउ
है हियाँ हेरइया
गलियारे-म धूरि-धूरि
बिरवा सब झूरि-झूरि
दाना पानी लौ अब
है नहीं जुरइया
है नहीं जुरइया
बित्तउ भरि छाँह नहीं
मदति केरि बाँह नहीं
हरहन कइ जूठनि मा
पेटु हम भरइया