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फाल्गुन शुक्ला सप्तमी की शाम,55 / शमशेर बहादुर सिंह
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(गंगा पर, फाफामऊ के पास)
रेती पार
स्निग्धर अचल धारा में धीरे-धीरे
डूब रहा था...
सूर्य
पीछे छूट रही थीं
गाती हुई टिटिहरियाँ
और सघन करती-सी
रुकी हवा का धुँधला नीला मौन।
दूर से निकट आता धीरे-धीरे
भारी छायाओं की महराबों का
गंगा का लंबा पुल
सहसा
ऊपर व्यो म में सहज
डूबा हुआ खड़ा था!
मौन हमारी नाव मानो
स्व यं दीया-बाती का समय
या कि
जन्मि दिवस हो जैसे मन के कवि का
दूर लिये जाती हो जिसको संध्या
अपने प्रिय रजनी के पूनम द्वीप।