फिर अन्धेरे में / शिरीष कुमार मौर्य
मुझे कुछ समय अन्धेरे में रहने दो
चौंधिया गई मेरी आँखें
बहुत तेज़ उजाले में मैं अन्धा हो जाता हूँ
अन्धेरे में देख पाता हूँ
ठीक-ठीक
कहाँ पर रखी हैं चीज़ें उनसे टकराता नहीं
कहाँ पर है बिछौना
आह भर के उस पर लेट जाता हूँ
कहाँ पर विचार
जिसके सहारे रात की उड़ी हुई नींद व्यर्थ जाने से
बच जाती है
साथ ही मेरे भीतर एक मनुष्य भी रच जाती है
मेरी मातृभूमि महान
ये पहाड़ खड़े रहते हैं अन्धेरे में
इनकी विराट छाया में सो रहे मेरे जन
उन पर ओढ़ावन की तरह फैला अन्धकार
वे कुनमुनाते हैं उनके घर भी लड़खड़ाते हैं
पिछली मुसीबतों से बाहर निकल नहीं पाए हैं अभी
गरज के साथ बारिश छींटों की फिर शुरूआत हो चुकी
फूल सब झर गए फल बनने से पहले ही
रास्ते जो सुधरने की उम्मीद में थे
रात के किंचित शीत में
टटोलते हैं अपनी देह
कुछ पत्थर कहीं
थोड़ा ताज़ा मिट्टी
फिर गिरी हुई मिलती है
मुझे इस अन्धेरे में रहने दो
मेरी आँखों में थोड़ी रोशनी है यहाँ
इस अन्धेरे से बाहर बहुत बड़ा अन्धेरा उजाला बनकर खड़ा है
मैं कम अन्धेरे में रहना चाहता हूं
बधावे बज रहे हैं
नगाड़ों की आवाज़ आकाश तक उठती है
और जलते हुए पत्थरों की तरह गिरती है बस्तियों पर
मरते समय की चीख़ को ख़ुशी की चीख़ साबित किया जा चुका
100 बच्चों की कक्षा में हाथ उठवाए गए तो 31 उठे
बचे हुए 69 को मूर्ख मान लिया गया
इस अन्धेरे में 69 इस तरह चमकता है
जैसे पहाड़ी ढलानों पर बाघ द्वारा बरसों पहले चिचोड़ी जा चुकी
मिट्टी में मिल रही हड्डियों का थोड़ा-सा फ़ास्फ़ोरस
इस अन्धेरे में ऐसे ही बचे-खुचे खनिजों से रोशनी की आस है
पता नहीं किस तरह देखूँ इसे
कि जिनके पास मनुष्यता का ज़रूरी खनिज नहीं वे ख़ुश हैं
उनमें उल्लास है
मुझे कुछ समय अन्धेरे में ही रहने दो
इस तरह के अन्धेरे में रहना इतनी चिन्ता की बात नहीं
अभी चमकता दिखा है अस्थियों का फ़ास्फ़ोरस
बरसों पहले बीड़ी सुलगाता था
एक हड़ीला चेहरा
उसके जीवन में न्याय, राहत, जीवनयापन और कुछ ख़ुश रह सकने का
एक भी प्रसंग दर्ज नहीं
हिन्दी के मस्तक पर बाहर भले कितने ही रत्न जड़ गए हों तब से
पर मस्तिष्क को चकमक की चिंगारियों का इन्तज़ार है ।
मैं इसी अन्धेरे में रह लूँगा
चुप नहीं रहूँगा
मेरे लोगो
अब भी ख़ूब गूँजती है मेरी आवाज़
मैं अपना प्रतिरोध
इस अन्धेरे में भी कह लूँगा