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फिर आने का वादा करके पतझर में / आलोक यादव
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फिर आने का वादा करके पतझर में
हाथ छुड़ाकर चला गया वो पल भर में
सपने जिसके तुम मुझको दिखलाते थे
आँखें अब तक ठहरी हैं उस मंज़र में
मन में मेरे अब तक आशा है बाक़ी
थोड़ी जान बची है अब तक पिंजर में
इतने आँसू कहाँ कि तन की प्यास बुझाऊँ
फूल खिलाऊँ कैसे मन के बंजर में
छुअन मख़मली, स्वप्न सलोने, बातें सब
अब तक लिपटे वहीँ पड़े हैं चादर में
दूर निगाहों की सीमा से हो फिर भी
आँखें तुमको ढूँढती रहती हैं घर में
नयन लगे हैं अब तक मेरे राहों पर
आ जाओ, आ भी जाओ, अपने घर में
आदि काल से सभी मनीषी सोच में हैं
कितने भेद छुपे हैं ढाई आखर में
मन में कुछ -कुछ चुभता रहता है 'आलोक'
थोड़ी सिलवट छूट गई है अस्तर में