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फिर उठी आज वो निगाह-ए-नाज़ / महेश चंद्र 'नक्श'
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फिर उठी आज वो निगाह-ए-नाज़
इक नए दौर का हुआ आग़ाज
हर हक़ीक़त है आईना फिर भी
ज़र्रा ज़र्रा है इक जहान-ए-राज़
लब-ए-शाएर पे गीत रक़्साँ हैं
रूह-ए-फ़ितरत है गोश बर-आवाज़
मेरी ख़ामोशियूँ के आलम में
गूँज उठती है आप की आवाज़
कोई आलम नहीं क़याम-पज़ीर
लम्हा लम्हा है माइल-ए-परवाज़
‘नक्श’ हम अहल-ए-दिल ने देखे हैं
मंज़िल-ए-इश्क़ के नशेब ओ फ़राज़