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फिर एक हिलोर उठी / शमशेर बहादुर सिंह

फिर वह एक हिलोर उठी—
गाओ
वह मज़दूर किसानों के स्वर कठिन हठी !
कवि हे, उनमें अपना हृदय मिलाओ !
उनके मिट्टी के तन में है अधिक आग,
है अधिक ताप :

अपने विरह मिलन के पाप जलाओ !
काट बूर्जुआ भावों की गुमठी को—
गाओ !
अति उन्मुक्त नवीन प्राण स्वर कठिन हठी !
कवि हे, उनमें अपना हृदय मिलाओ !

सड़े पुराने अंध-कूप गीतों के
अर्थहीन हैं भाव, मूक मीतों के—
उन्हें अपरिचय का लाँछन दे बिल्कुल आज भुलाओ !

नूतन प्राण-हिलोर उठी !
तुम, वह जिस ओर उठी, उठ जाओ !
कवि हे !..