भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिर कहाँ संभव रहा अब गीत कोई गुनगुनाऊँ / राकेश खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भोर की हर किरन बन कर तीर चुभती है ह्रदय में और रातें नागिनों की भांति फ़न फ़ैलाये रहतीं दोपहर ने शुष्क होठों से सदा ही स्वर चुराये फिर कहाँ संभव रहा अब गीत कोई गुनगुनाऊँ

प्रज्ज्वलित लौ दीप की झुलसा गई है पाँव मेरे होम करते आहुति में हाथ दोनों जल गये हैं मंत्र की ध्वनि पी गई है कंठ से वाणी समूची कुंड में बस धुम्र के बादल उमड़ते रह गये हैं

पायलों से तोड़ कर सम्बन्ध मैं घुँघरू अकेला ताल पर मैं, अब नहीं संभव रह है झनझनाऊँ

साथ चलने को शपथ ने पाँव जो बाँधे हुए थे चल दिये वे तोड़ कर संबंध अब विपरीत पथ पर मैं प्रतीक्षा का बुझा दीपक लिये अब तक खड़ा हूँ लौट आये रश्मि खोई एक दिन चढ़ ज्योति रथ पर

चक्रवातों के भंवर में घिर गईं धारायें सारी और है पतवार टूटी, किस तरह मैं पार जाऊँ

बँट गई है छीर होकर धज्जियों में आज झोली आस की बदरी घिरे उमड़े बरस पाती नहीं है पीपलों पर बरगदों पर बैठतीं मैनायें, बुलबु हो गई हैं मौन की प्रतिमा, तनिक गाती नहीं हैं

दूब का तिनका बना हूँ वक्त के पाँवो तले मै है नहीं क्षमता हटा कर बोझ अपना सर उठाऊँ

थक गई है यह कलम अब अश्रुओं की स्याही पीते और लिखते पीर में डूबी हुई मेरी कहानी छोड़ती है कीकरों सी उंगलियों का साथ ये भी ढूँढ़ती है वो जगह महके जहाँ पर रातरानी

झर गई जो एक सूखे फूल की पांखुर हुआ मैं है नहीं संभव हवा की रागिनी सुन मुस्कुराऊँ