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फिर किरन ने द्वार खोले / श्रीकान्त जोशी

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फिर किरन ने द्वार खोले
रश्मियों ने रंग ढाले
डालियों ने गीत बोले

फिर किरन ने द्वार खोले।

फिर हुए उत्सव, हुए फिर पूर्वजा के हाथ पीले
फिर तिमिर मात खाई, मुस्कराए पुष्प गीले
फिर सिरजने के सपन को
ढूँढ़ लाई दृष्टि श्रम की
पंक ने पंकज खिलाए, फ़सल बनकर बीज डोले।

यह सुबह फिर आ गई, ले, उठ कि तू मस्तक झुका ले
रश्मि के स्नेहिल करों की, स्पर्श ले, चंदन लगा ले
कौन डूबा है अभी तक
विगत की तन्हाइयों में
टेर पूरब की सुने फिर भी रहे अनसुने-अडोले?

रश्मियों ने रंग ढाले, डालियों ने गीत बोले
फिर किरन ने द्वार खोले।