फिर किसी को याद करते हुए / मोहन कुमार डहेरिया
आ रही जहाँ से तुम्हारी याद
तुम नहीं हो
एक गन्ध है तुम्हारी बेहद ठोस
जहाँ से आ रही है तुम्हारी याद
एक जीवाश्म है जीवन से भी ज्यादा मुखर
और इन्द्रधनुष पर जैसे सूली पर टँगा
कहाँ अब लहरों पर थिरकती वह नाव जैसी चाल
वे दिन हवा हुए
जब एक-दूसरे को देखते ही भक् से जल उठते थे
हमारी आत्मा के दीये
जाड़े की भोर में केले के पेड़ों के नीचे यूँ
साकार होता हमारा प्रेम
गुँथे हों मानों भाप के दो गोले
आ रही जहाँ से तुम्हारी याद
पक्षियों के घोंसले से निकल रही हैं लपटें
मोरों के आर्तनाद से भर गया जंगल
जैसे वर्षों से बादल उधर नहीं गये
इस समय जबकि
किसी विशाल सितारे की रोशनी में दिपदिपा रहा
तुम्हारा आसमान
बह रही आँगन में दूध की नदी
जाहिर है
सुनाई नहीं दे रही होंगी
समय की किसी पेचीदा दीवार के पीछे
बेहद रपटीली ढलान पर
लुढ़कते मनुष्य की चीखें।