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फिर क्यों? / पल्लवी मिश्रा
Kavita Kosh से
मैं जानती हूँ-
वह फूल नहीं, पत्थर है
कठोर और सुगन्धहीन-
फिर क्यों?
उसके पाषाण हृदय में,
पँखुड़ियों सी कोमलता की,
तलाश करती हूँ?
मैं जानती हूँ-
वह नदी नहीं, सागर है
खारा और नमकीन-
फिर क्यों?
अंजुली फैलाकर
उसके जल से प्यास बुझाने की
चाहत रखती हूँ?
मैं जानती हूँ-
वह देव नहीं मानव है
दुर्बलताओं के अधीन-
फिर क्यों?
उससे एक आदर्श,
देवतुल्य व्यवहार की
आस रखती हूँ?