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फिर खिलखिला उठा किसी नादान की तरह / ‘अना’ क़ासमी
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फिर खिलखिला उठा किसी नादान की तरह
हँसने लगा है चाँद भी इंसान की तरह
इक इक अदा में वो ही बहर वो ही बांकपन
पढ़ता हूँ उसको मीर के दीवान की तरह
बातें हैं सर्दियों में उतरती है जैसे धूप
संासें हैं गर्म रात के तूफ़ान की तरह
कह दे कोई तो चैन से इक रात सो रहँ
बैठा हूँ अपने घर में ही मेहमान की तरह
है कितना होशियार समझ कर हरेक बात
रहता है हर मक़ाम पे नादान की तरह
मैं अपने रब से माँग रहा था किसी को और
क्यों आ गये हो बीच में शैतान की तरह