फिर खो गया / अजित कुमार
फिर मेले में खो गया
एक छोटा बच्चा ।
था अभी-अभी तो यहीं
फूल के डंठल को,
रंगीन पँखुरियों को,
पराग को,
नन्हें-नन्हें बीजों को
अलगाता कभी
…कभी बिखराता,
आता अभी उधर से
अभी उधर ही जाता…
अचानक ही ओझल हो गया
हवा के झोंके-सा,
उड़ती-उड़ती पत्ती-सा,
छोटे बच्चे-सा
एक छोटा बच्चा ।
गोटेवाला था व्यस्त,
किताबोंवाला ऊँघ रहा था,
पानी पाँडे डोल झुलाते
झूम—झटक—झुक—झूल
रहे थे,
टिड्डा फुदक-फुदक कर
मानो पूछ रहा था
खुद ही—
क्यों S क्यों S…
हर बार
वही क्यों खोता है ?
…कोलाहल । कितना कोलाहल ।
भगदड़ । कैसी भगदड़ । …
थके,
ढूँढकर थके पाँव
लड़खड़ा रहे थे,
दिखा तभी…
धुँधलाती पुतली में झलका
वह
दूर
शहर के पार
ताकता
अपलक
सबसे अलग
अछूता
एक छोटा बच्चा ।
खोजने वाले
खोज न पाए—
मिलने पर उसकी आँखें
पहले झिलमिल-झिलमिल
चमकी थीं
या ढुलकी थी नन्हीं बूँद एक
आँसू की ।
इस धरती पर,
या मेघों के पार : ‘जहां तक गई नील झंकार’—
कहाँ थी उसकी दुनिया ?