फिर चराग़े-लाला से रौशन हुए कोहो-दमन / इक़बाल
फिर चराग़े-लाला से रौशन हुए कोहो-दमन<ref>उपवन और पहाड़ियाँ</ref> 
मुझको फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़े-चमन<ref>बाग़ का परिंदा</ref> 
फूल हैं सहरा<ref>रेगिस्तान</ref>  में या परियाँ क़तार अन्दर क़तार<ref>पंक्ति</ref> 
ऊदे-ऊदे, नीले-नीले पीले-पीले पैरहन<ref>वस्त्र</ref> 
बर्गे-गुल<ref>फूलों के पत्ते</ref>  पर रख गई शबनम का मोती बादे-सुब्ह<ref>प्रभात समीर</ref> 
और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन
हुस्ने-बेपरवा को अपनी बेनक़ाबी के लिए
हों अगर शहरों से बन<ref>वन/जंगल</ref> प्यारे तो  शहर अच्छे कि बन
अपने मन में डूबकर पा जा सुराग़े -ज़िन्दगी<ref>जीवन का संकेत</ref>
तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन
मन की दुनिया, मन की दुनिया सूदो-मस्ती,जज़्बे-शौक़
तन की दुनिया तन की दुनिया सूदो-सौदा,मक्रो-फ़न<ref>कला और मक़्क़ारी</ref>
पानी-पानी कर गई मुझको क़लन्दर की ये बात
तू झुका जब ग़ैर के आगे न मन तेरा न तन
 
	
	

