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फिर जला लोबान यारो / देवेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
फिर जला लोबान, यारो !
महक उठा घर-बगीचा, गाँव, नगर
सिवान, यारो !
रह गई छाया अधूरी
एक चम्मच, एक छूरी
एक मुट्ठी प्यार बचपन
खेल का मैदान, यारो !
रक्त की प्यासी शिराएँ
बन्द कमरे की हवाएँ
रात जाड़े की बुढ़ापा,
सोच के हैरान, यारो !
पहाड़ों की चोटियाँ हैं
दो-पहर की रोटियाँ हैं
भरी, घाटी-सी जवानी
मुश्किलों की खान, यारो !