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फिर ज़ुबानों पर इन्कलाब आए / अभिनव अरुण
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फिर ज़ुबानों पर इन्कलाब आये
वक़्त इतना भी न ख़राब आये
ये रईसों की शौक़ है अब तो,
इस सियासत में भी नवाब आये
आंच में उनकी खुल गयी कलई,
वो मेरे दर पर बेनक़ाब आये
फेंक पत्थर ठहर गये हैं सब,
चाहते हैं कि अब जवाब आये
फिर से कक्षाओं में चलो बैठें,
फिर से काग़ज़ कलम किताब आये
उनकी चाहत कि कुछ लिखूँ न लिखूँ,
किन्तु हर ख़त में इक गुलाब आये
रात इस आस में कटी मेरी,
नींद आये तो उनका ख्व़ाब आये
आज फिर याद आ रही उनकी,
आज फिर सामने शराब आये
मेरे आँगन में रात रानी है,
मेरे आँगन में माहताब आये