फिर झरती रहती हैं झरनों-सी / मलय
इस तरह कि सींचते ही फलक और लहक उठे चेतना
चमके उट्ठें आँखें
दिपते माथों के नीचे उतरें-
हज़ार-हज़ार ध्रुव-तारे
ज़िंदगियाँ पाई जाती हैं
गाई जाती हैं
रमते ख़ून की लहरों में उछलती देखिए
ज़िंदगियाँ तहस-नहस होती हैं
फटे चिथड़ों से चिरीं-घिरीं
जो सूखी घास के ढेरों से
या पत्थरों से निचोड़ लेती हैं रस
भूख और संघर्ष की
धारदार डिज़ाइनें खड़ी होती जाती हैं
डिज़ाइनें गुनी हुई
लम्बी थरथराहट में बुनी जाती हैं
धो-धोकर डुबाकर
होने के उबलते-उफ़नते पानी में
गाडः़ई और ठोस-सी हो जाती है बात
तब अपना रंग रचती है
रक्त में अंकुराई कोंपल
धीरे से ऊँचाई चढ़ती है बढ़ती है
तब आकर ज़िन्दगी की आँख तक चमकती है
पकड़ में लपकती है गति
ख़ून तक पहुँचती है संस्कृति
पता नहीं कहाँ खड़े हैं
हम कहाँ खड़े हैं ? चलते हुए