भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर तुम्हारी याद आई / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
फिर तुम्हारी याद आई,
रात में चमकी जुन्हाई ।
गुदगुदी-सी लगी मन में
तन तरंगित व्योम सिहरा,
ज्यों पड़े सारंगियों पर
एक लय में कोटि लहरा;
ओस की आँखें चमकतीं,
दिष्ट भी है मौन विरहित;
घूम कर आई कहाँ से
कुछ पुरानी पीर परिचित;
नैन मंडप-से दिखे हैं,
नींद में किसकी सगाई ?
साँस का संसार सोया
जग गया कैसे अचानक !
फिर दिखे हैं रोम सारे
पंक्ति में हो धीर याचक ।
ध्यान में तो था नहीं मैं
लग गया यह ध्यान कैसे !
भींगते हैं प्राण कोमल
चाँद के झरते अमिय से ।
सुधि तुम्हारी चैत में, ज्यों-
बात गौने की चलाई ।