भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिर नया सूरज जन्मा / विकि आर्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर नया सूरज जन्मा, सड़कें जाने लगी मंदिर
शंख, सायरन, धुआँ, कोलाहल, झुके सर निकले काम पर

गुरद्वारे के स्वर्णिम शिखरों सी गूंज रही सुनहरी दोपहर
पैरों में परछाईयाँ समेट कर कितने अरमान खा चुके लंगर

दिन बड़े मठ सा गुज़रा, फेरते घुमाते कर्म चक्र
फ़िर भी कितने काम अधूरे, जा टंगे पताकाओं में फ़हरा कर

शाम उतरी सूने गिरजे में पियानो की मद्धिम धुन पर
जी चाहा गुनहगार हो लूं आज फ़िर उसको याद कर

रात अंधेरी फैली जैसे चादर किसी दरगाह पर
सिक्के सितारों के छिटके हैं, किसी ने दुआऐं माँग कर