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फिर निगाहों में आ बसा कोई / साग़र पालमपुरी


फिर निगाहों में आ बसा कोई

होने वाला है हादसा कोई


गुमरही—सी है गुमरही यारो!

कोई मंज़िल न रास्ता कोई


जाने क्यों उस बड़ी हवेली से

आज आती नहीं सदा कोई


हर कोई अपने आप में गुम है

अब कहे तो किसी से क्या कोई


इश्क़ वो दास्तान है जिसकी

इब्तिदा है न इंतिहा कोई


वक़्त ने लम्हा—लम्हा लूटा जिसे

ज़िन्दगी है या बेसवा कोई


मुद्दई हैं न दावेदार ही हम

कोई दावा न मुद्दआ कोई


हमने तो सब की ख़ैर माँगी थी

किसलिए हमसे हो ख़फ़ा कोई


हर क़दम फूँक—फूँक रखते हैं

हमको दे दे न बद्दुआ कोई


देस अपना ही हो गया परदेस

कोई मैहरम न आशना कोई


बात ‘साग़र’! ख़िज़ाँ की करते हो

है बहारों का भी पता कोई ?