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फिर पागलपन घेर रहा है / रामगोपाल 'रुद्र'
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फिर पागलपन घेर रहा है!
मेरे मन को जैसे कोई अपनेपन में फेर रहा है!
लगता है ऐसा अपने में,
जाग रहा हूँ मैं सपने में;
लेकर मेरा नाम न जाने कौन, कहाँ से टेर रहा है?
जड़ता के ऐसे निर्जन में,
शिल्पी कोई मेरे मन में
धड़कन की छेनी से अपने मन का रूप उकेर रहा है!
कुछ न हुआ तो पुलिन पटाए,
बादल ने बनफूल उगाए,
आज इन्हें भी मौसम का मन कैसे-कसे हेर रहा है!