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फिर पानी बरसा / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
दो महीनों की धूपहीन घोर सर्दी में से
उष्मा जाग रही थी
धूप खुलकर हँस रही थी
लोगों के तन से ऊनी कपड़े उतर गये थे
और फागुन गीत गाने लगा था
कि एकाएक न जाने कहाँ से अवांछित बादल आये
और टूट कर बरसते रहे दो दिन तक
सर्दी लौट आई
शहर का तो कुछ नहीं बिगड़ा
ऊनी कपड़ों में उसे
यह सर्दी सुहावनी लगने लगी
किन्तु गाँव तो बेहाल हो गये
खेतों में पकने के लिए तैयार हो रही फसलें
ज़मीन पर लोट गईं
उनके मोहक फूल और जीवन-प्रद दाने कीचड़ में सन गये
किसानों के तन-मन के साथ
उनके सपने भी काँपने लगे
दो दिन बाद आने वाली होली का उल्लास
उदासी में बदल गया
और रंग कीचड़ में
आगे के महीने उजाड़ से पड़े दीखने लगे।
-4.3.2015