भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिर पानी बरसा / रामदरश मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दो महीनों की धूपहीन घोर सर्दी में से
उष्मा जाग रही थी
धूप खुलकर हँस रही थी
लोगों के तन से ऊनी कपड़े उतर गये थे
और फागुन गीत गाने लगा था
कि एकाएक न जाने कहाँ से अवांछित बादल आये
और टूट कर बरसते रहे दो दिन तक
सर्दी लौट आई
शहर का तो कुछ नहीं बिगड़ा
ऊनी कपड़ों में उसे
यह सर्दी सुहावनी लगने लगी
किन्तु गाँव तो बेहाल हो गये
खेतों में पकने के लिए तैयार हो रही फसलें
ज़मीन पर लोट गईं
उनके मोहक फूल और जीवन-प्रद दाने कीचड़ में सन गये
किसानों के तन-मन के साथ
उनके सपने भी काँपने लगे
दो दिन बाद आने वाली होली का उल्लास
उदासी में बदल गया
और रंग कीचड़ में
आगे के महीने उजाड़ से पड़े दीखने लगे।
-4.3.2015