भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर भी शाँत है झील / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सुरमई अंधेरे के पहले
सूरज की लाल परछाइयां
मीठे पानी से नहलाती
झील की सतह हो गई है लाल
तब भी हो गई थी लाल
जब हुक्मरानों ने
बेवजह कत्लेआम कर
फेंके थे मृत शरीर
झील में
झील की तलहटी से
मछलियों और सीपों के
मृत नमूने तो तलाशे हैं
गोताखोरों ने
पर क्यों नहीं तलाश पाए
शहीदों की कुर्बानियां
शहादत के नमूने ?
सदियों पुराना इतिहास
कहता है झील का पानी
आदिवासी कबीलों का
विदेशी हुकूमत का
आज़ादी का
लोक कथाओं और साहित्य का
पूरा का पूरा इतिहास
अपनी तलहटी में समेटे
बह रही है शांत झील
अवाक हूं
इतना ज्वलंत खजाना
फिर भी शांत ,निस्प्रह !!!