फिर भी सखे ! / साहिल परमार
सुबह से ले के शाम, करतीं हैं कितने काम
फिर भी सखे, हम तो अबला ठहरीं।
वो कहते हैं हमारे हाथ में नज़ाकत है ,
बिना देखे कि क्या - क्या झेलते ये आफ़त हैं,
हमारे हाथ बर्फ़ जैसी ठण्ड से हैं लड़े,
हमारे हाथ गर्मियों की आँच से हैं पले,
कभी जलते, कभी ठिठुरते सितारों को लिए थाम।
सुबह से ले के शाम, करतीं हैं कितने काम
फिर भी सखे, हम तो अबला ठहरीं।
वो कहते हैं हमारा दिल नहीं है, चूहा है,
बिना देखे कि ज़ुल्म उस पे क्या-क्या हुआ है,
हमने इस्पाती आफ़तों से टक्करें ली हैं,
रूठे मझधार से किनारे कश्तियाँ की हैं,
सर पे आकाश नहीं, टाँपता रहता है दुःख तमाम।
सुबह से ले के शाम, करतीं हैं कितने काम
फिर भी सखे, हम तो अबला ठहरीं।
वो कहते हैं हमारे पाँव छोटे - छोटे हैं,
बिना देखे कि बोज धरती का ये ढोते हैं,
हमारे पाँव से रोशन बना घर का चेहरा,
हमारे पाँव से ही बाग बने हर सेहरा,
ये चलें तब तो उन्हें मिल सकी हैं मंज़िलें तमाम।
सुबह से ले के शाम, करतीं हैं कितने काम
फिर भी सखे, हम तो अबला ठहरीं।
वो कहते हैं की हम तो काम कुछ नहीं करतीं,
फिर भी हम बिन तो उन की दाल भी नहीं गलती,
चन्द ही रोज़ में घर-काम से थक जाते हैं वो,
सारे घर का है हम पे बोझ देख पाते हैं वो ?
उन के सिर्फ़ हाथ हैं, लिंग हैं, आँखों का नहीं नाम।
सुबह से ले के शाम, करतीं हैं कितने काम
फिर भी सखे, हम तो अबला ठहरीं।
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार