फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया / भारतेंदु हरिश्चंद्र
फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया
वाजिब इस जा पर क़लम को सर झुकाना हो गया
सर-कशी इतनी नहीं ज़ालिम है ओ ज़ुल्फ़-ए-सियह
बस कि तारीक अपनी आँखों में ज़माना हो गया
ध्यान आया जिस घड़ी उस के दहान-ए-तंग का
हो गया दम बंद मुश्किल लब हिलाना हो गया
ऐ अज़ल जल्दी रिहाई दे न बस ताख़ीर कर
ख़ाना-ए-तन भी मुझे अब क़ैद-ख़ाना हो गया
आज तक आईना-वश हैरान है इस फ़िक्र में
कब यहाँ आया सिकंदर कब रवाना हो गया
दौलत-ए-दुनिया न काम आएगी कुछ भी बा'द-ए-मर्ग
है ज़मीं में ख़ाक क़ारूँ का ख़ज़ाना हो गया
बात करने में जो लब उस के हुए ज़ेर-ओ-ज़बर
एक साअत में तह-ओ-बाला ज़माना हो गया
देख ली रफ़्तार उस गुल की चमन में क्या सबा
सर्व को मुश्किल क़दम आगे बढ़ाना हो गया
जान दी आख़िर क़फ़स में अंदलीब-ए-ज़ार ने
मुज़्दा है सय्याद वीराँ आशियाना हो गया
ज़िंदा कर देता है इक दम में ये ईसा-ए-नफ़स
खेल इस को गोया मुर्दे को जिलाना हो गया
तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ दम भर नहीं रुकता 'रसा'
हर नफ़स गोया उसी का ताज़ियाना हो गया