भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फिर वही आवारगी है, फिर वही शर्मिंदगी / निश्तर ख़ानक़ाही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उम्र के अय्याम* गुज़रे, रह गई शर्मिंदगी
ज़िंदगी क्या हमसे पूछो, ज़िंदगी शर्मिंदगी

सच कहूँ तो याद हैं लेदे के दो ही हालतें
बेख़ुदी की कज-ख़रामी*, होश की शर्मिंदगी

अब मलामत* का भी कुछ दिल पर असर होता नहीं
बेहिसी बढ़ने लगी, जाती रही शर्मिंदगी

उम्र-भर की अंजुमन-आराइयो* से क्या मिला
इब्तदा* की सरख़ुशी, अंजाम की शर्मिंदगी

हर शिकायत पर, वो उसकी बेनियाज़ाना* हँसी
पूछिए मत, किस तरह हमने सही शर्मिंदगी

ख़ानक़ाही चंद दिन की गोशा-गीरी* और बस
फिर वही आवारगी है, फिर वही शर्मिंदगी

1- अय्याम-रात-दिन

2- कज-ख़रामी- लड़खड़ाहट

3- मलामत--फ़टकार

4- अंजुमन-आराइयो--सभाएँ आयोजित करना

5-इब्तदा-प्रारंभ

6-बेनियाज़ाना--लापरवाह

7-गोशा-गीरी--एकांत