भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर वही सय्याद है वो गुलसितां है / कुमार नयन
Kavita Kosh से
फिर वही सय्याद है वो गुलसितां है
फिर हुआ ज़ख़्मी हमारा आशियाँ है।
रास्ता किस ओर है हम कैसे निकलें
हर तरफ बारूद-बम आतिशफशां है।
खून का दरिया बहाया काफिरों का
अम्न फिर भी अहले-मज़हब में कहां है।
चल पड़े हैं पांव पीछे रहबरों के
मंज़िलों की खोज करता कारवां है।
झांक लो अपने गरेबाँ में अगर तो
ढूंढ लोगे गलतियों का जो निशां है।
लोग इस बस्ती के हैं खुशहाल कैसे
जबकि हर इक शख्स बहरा-बेज़बां है।
एक दो गर हों तो हम तरमीम कर दें
ये ग़ज़ल तो खामियों का ही बयां है।
कर रहा हूँ मैं हवाओं की सताइश
मां क़सम अब रेत पर अपना मकां है।