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फिर साथ दे न पाई है तकदीर आपकी / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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फिर साथ दे न पाई है तक़दीर आपकी।
हर इक हुयी है रायगां तदबीर आपकी।
कद घट रहा है आपका मजलिस में दिन-ब-दिन,
खाने लगी है जंग ये तौकीर आपकी।
ये सोचना है आपको उस सिरफिरे ने क्यूँ,
दीवार से उतार दी तस्वीर आपकी।
बातों पर आपकी कोई करता नहीं यकीन,
करती नहीं असर कोई तकरीर आपकी।
हर बार मँुह के बल ही गिरे जंग में जनाब,
आई न काम वक़्त पर शमशीर आपकी।
उम्दा ग़ज़ल हैं कह रहे अहले सुखन तमाम,
अब तो ग़ज़ल रही नहीं जागीर आपकी।
नाराज और कुछ दिनों बस्ती रही अगर,
‘विश्वास’ रूठ जाए न तक़दीर आपकी।