फिर से अकेले / सदानंद सुमन
हम रोज जिनसे मिलते, दुनिया भर की बतियाते
फिर भी किसी के अन्दर कभी नहीं झाँकते।
हम घंटों आपस में देश-दुनिया की बात करते हैं
हम अपने अनुपस्थित दोस्तों की शिकायतें करते हैं
हम फिल्म, क्रिकेट और विश्वसुन्दरियों की बात करते हैं
हम राजनीति में ऊँचे कद के बेईमान चेहरों की शिनाख्त करते हैं
हम हर सामयिक घटनाओं पर टिप्पणियों करते हैं और
इन सारी चर्चाओं के दरम्यान
कभी हँसते, मुस्कुराते और ठहाके लगाते
तो कभी गुस्से और खीझ से उत्तेजित होते और
कभी गमगीन, उदास और हताश भी हो जाते हैं
और फिर बगैर किसी निष्कर्ष पहुँचे रोज की तरह
हम अपने गंतव्यों की ओर विदा होते हैं
विदा होते हैं हम अपने अंधेरों की ओर
हम में से कोई नहीं पूछता किसी से भी कभी
सिवाय कुछ औपचारिक जुमलों के, उसका आन्तरित हाल!
एक क्षणिक तोष के बाद
अपने अंधेरों से संघर्ष के लिए होते हम
फिर से अकेले!