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फिर से असमर्थ / रेखा चमोली
Kavita Kosh से
शिकायतें तो आएंगी ही
जब-जब जाना चाहेगा कोई
लकीर से बाहर
हटाना चाहेगा
पर्दों को
पलटकर देना चाहेगा
तीखी प्रतिक्रियाएं
व्यवस्था के पोषकों को
नहीं होगा सहन
कोई तोड़ कर चहारदीवारी
सांस ले खुले में
महीन मकड़ी के
जाले से बुने
दबावों को करे महसूस
पर हर बार की तरह
इस बार भी
रह जाएंगी उंगलियां
लिजलिजे-चिपचिपे
धागों में उलझी हुई
असमर्थ हो जाएंगे हाथ
रोकने को
गले में बढ़ता जाएगा
जाले का कसाव।