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फिर से ग़म की घटा सिर पे छाने लगी / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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फिर से ग़म की घटा सिर पे छाने लगी
रौब फिर बर्क़ अपना जमाने लगी

ले ली माँझी ने रिश्वत है तूफ़ान से
फिर भँवर में तरी डगमगाने लगी

हो फ़सल की हिफ़ाज़त भला किस तरह
बाड़ जब खेत को ख़ुद खाने लगी

हो चमन में अमन कैसे, हर फूल से
है बगावत की बू जबकि आने लगी

कौन बृज को बजाए कन्हैया, कि जब
बाँसुरी कंस के गीत गाने लगी

सन्धि कर ली है सूरज ने अंधियार से
रौशनी क़ैद में छटपटाने लगी

झूठ का हर तरफ़ बोलबाला हुआ
ख़ौफ़ से मुँह सचाई छुपाने लगी

वक़्त कैसा है बेख़ौफ़ हैवानियत
आँख इन्सानियत को दिखाने लगी

आज के इस नये दौरे-तहज़ीब में
बेहयाई ख़ड़ी मुस्कुराने लगी

चल ‘मधुप’ काम अब क्या है तेरा यहाँ
डार कव्वों की कोयल कहाने लगी