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फिर से गिरवी मकान है शायद / विकास जोशी
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फिर से गिरवी मकान है शायद
घर में बेटी जवान है शायद।
ये लकीरें सी जो हैं चेहरे पर
उम्र भर की थकान है शायद।
ज़ुल्म सह कर जो चुप हैं सदियो से
उनके मुंह में ज़ुबान है शायद।
शय जिसे दिल कहा है दुनिया ने
कांच का मर्तबान है शायद।
क्या छुपाया है हमसे बच्चों ने
मुट्ठी में आसमान है शायद।
ये हुकूमत है बहरी ये तय है
कौम भी बेज़ुबान है शायद।
लोग अब मिल के भी नहीं मिलते
फासला दरमियान है शायद।