फिर से धरती को बसाना है / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
मुझे अब बसा ही लेना चाहिए
अपनी कल्पना का कोई संसार
इस जीती जागती धरती पर
जैसे
धरती पर रहने के लिए
जरूरी है कोई घर, कोई गुफा, कोई घोंसला
वैसे ही
किसी घर, किसी घोंसले, किसी गुफा में
रहने के लिए जरूरी है कोई कल्पना
एक शोर है
जिसमें डूबी हुई है धरती
उसके दरकते सीने से
गिर रहे है पेड़
पहाड़ों पर बर्फ की तरह
जमी हुई उदासी
मुझे बचा ही लेना चाहिए
अपने वास्ते किसी जमना का किनारा
जिसके आईने में झांक झांककर
तमाल के पेड़
झुक झुककर कर रहे हो अपना श्रृंगार
मुझे बचा ही लेना चाहिए एक कदम्ब
ताकि कल जब सारे पेड़ कट चुके हो
और सूरज निकले तो
चिड़ियाएं गा सके उनके स्वागत का प्रभाती
उसकी डाल पर बैठकर
बारूद से जख्मी धरती पर
एक शीतल लेप के वास्ते
मुझे बचा लेना चाहिए एक चंदन
आकाश विदीर्ण है
पथ भ्रष्ट है बादलों की पीढ़ियाँ
बाजार में नहीं लगते अब
टोकनियाँ भर भरकर आमों के ढेर
मुझे बचा ही लेना चाहिए
कम से कम एक गुढली ताकि
किताबों में आम के आम और
गुढलियों के दाम पढ़कर
कौतुहल भरी बच्चों की ऑंखों को
दिया जा सके जवाब
मगर ऐसे तो
बहुत सी चीजें है जिन्हें बचाना जरूरी है
जैसे
आसमान का एक नीला टुकड़ा
जिस पर टंगे हुए चाँद के चंँदोबे तले
कोई कर सके प्रेम
ताजी हवा के कुछ झोंके
जिसमें ठहर सके यादों के मौसम
सपनों से जागने के लिए
भोर में चिड़ियाओं के कलरव
गमले में खिले फूल देखने के लिए
आ सके
रंगीन पंखों वाली तितलियाँ
एक भोला सा विश्वास
कोमल लताओं को लिपटने के लिए
मजबूत पेड़ों के सहारे
उसके होठों पर
कुछ गीतों की कड़ियाँ
पैरों में नाच
गेहू की बालियों में दूध,
जुवार के मोती दाने
उजले फक
ऐसे तो बहुत सी चीजें है
जिन्हें बचाना जरूरी है
इन सारी चीजों को बचाने के लिए
जरूरी है आदमी को बचाना और
आदमी को बचाने के लिए जरूरी है
एक दुनिया उसकी कल्पनाओं की
जरूरी है
फिर से बसाना इस धरती को
जो हर रोज उजड़ती जा रही है थोड़ी थोड़ी,
जरूरी है संभालना उन जड़ों को
जो धीरे धीरे उखड़ती जा रही है