भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर से माँ गरजी / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
चार बज गये
दरवाजे की घंटी नहीं बजी
ढेरों काम
पड़े हैं घर में
नजर घड़ी पर लगी हुई है
धड़कन बढ़ती ही जाती है
जैसे जैसे बढ़ी सुई है
मोबाइल पर
रटा रटाया, "है नेटवर्क बिज़ी"
विद्यालय तो
बंद हो गया
था लगभग दो घंटे पहले
अखबारों में छपे हुए जो समाचार
पढ़ कर दिल दहले
आँखों में
आँसू की झिलमिल सेना दिखे सजी
और तभी
दरवाजे पर
दोपहिया रुकने की आहट है
दरवाजा खुलने तक मन में
जाने कितनी घबराहट है
मुस्काती बिटिया
पर देखो, फिर से माँ गरजी