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फिर हम क्यों लड़ते रहते हैं ? / नवीन सी. चतुर्वेदी

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मुझको तुझसे रंज नहीं है,
तुझको मुझसे द्वेष नहीं!
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!

मेरी पीङा - तेरे आँसू,
तेरा सुख - मेरी मुस्कान|
तेरी राहें - मेरी मंजिल,
मेरा दिल - तेरे अरमान|
मेरा घर - तेरा चौबारा,
तेरा कूचा - मेरी शान|
दौनों ही कहते रहते हैं,
मानव - मानव एक समान|

फिर हम कैसे प्रुथक् हुए?
जब मत मैं अन्तर लेश नहीं!
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!

कौन सनातन है? प्यारे -
इस मुद्दे मैं कुछ जान नहीं|
पारस्परिक समन्वय से,
हम दौनों ही अनजान नहीं|
क्या तुझको - क्या मुझको,
वो सब पहली बातें ध्यान नहीं?
दौनों जानें, कुछ इक बातें,
होती कभी समान नहीं|

कया फिजूल बातों से,
तेरे दिल को पहुंचे ठेस नहीं?
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!


आ, पल भर मिल बैठ जरा,
सुन ले मन की बातें मेरी|
खुदगर्जों का बहिष्कार कर,
बात सुनूंगा मैं तेरी|
सुलझा लें गुत्थी,
सदियों से,
अनसुलझी हैं बहुतेरी|
आज नहीं, तो कभी नहीं,
कल फिर हो जायेगी देरी|

क्या तेरे आराध्य देव का,
एक नाम, 'अखिलेश' नहीं?
फिर हम क्यों लङते रहते हैं?
जब किंचित भी क्लेश नहीं!!