फिर हुई बरसात
झींगुर बोलते ।
फूटते कल्ले ज़मीं से
रह गए हैं हम हमीं से
इन्द्रधनु हर बार
ईंगुर घोलते ।
आँख तालों की झँपी है
मेघ-वन की कँपकँपी है
खिड़कियाँ, पल्ले
हवा में डोलते ।
क्या मिला पत्ते तने को
सिवा जड़ से टूटने को
वहीं तक कहिए
जहाँ तक हो सके ।