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फिसल गईं स्वीकृतियां / कुँअर बेचैन
Kavita Kosh से
दृष्टि हटी जब भी
मन-पुस्तक के पेज से
फिसल गईं स्वीकृतियाँ
जीवन की मेज से।
हाथों को
मिली हुई
लेखनी बबूल की
दासी जो मेहनत के
साँवरे उसूल की
जितने ही
प्राण रहे मेरे परहेज से।
फिसल गई थीं खुशियाँ
जीवन की मेज से।
गलत दिशा
चुनी अगर
कागज के पेट ने
उसको सम्मान दिया
हर “पेपर वेट” ने
ब्याही जाती
खुशियाँ झूठ के दहेज से।
फिसल गईं स्वीकृतियाँ
जीवन की मेज से।