फुटपाथिए / सुधीर सक्सेना
न जाने कहाँ से आए
मगर आए तो यहीं के होकर रह गए ये फुटपाथिए
मानो आव्रजक नहीं, वे ही हैं फुटपाथ की आदिम संतान ।
जैसे मछली जानती है तालाब को
और ऊँट रेगिस्तान को,
वे जानते हैं चप्पा-चप्पा फुटपाथ का
वे जानते हैं कि कहाँ थोड़ी-सी गफ़लत में
लगेगी ठोकर
और कहाँ ध्यान बँटा तो पाँव से लिपट सकती है मोच ।
फुटपाथिए जानते हैं बखूबी फुटपाथ का मिजाज
कि कब फूटेगी पनाली और कब गिरेगी ओस
फ़क़त कुछ माह भीगते हैं बारिश में फुटपाथिए
मगर दर्द और नफ़रत भरी फब्तियों में भीगते हैं पूरे साल ।
फूलझाड़ू नहीं, हवा बुहारती है फुटपाथ का आंगन
और छोड़ जाती है कुछ ज़र्द पीले पत्ते
गर्मियों में जब आसमान से बरसता है तेज़ाब
फुटपाथ सोखते हैं तेज़ाब स्पंज़ की तरह
कभी भी नहीं, नहीं कभी भी
मंत्रालय के कानों तक नहीं पहुँचता फुटपाथ का कोहराम
कोई नहीं देखता फुटपाथियों के आँसू
वे अचीन्हे ही रहते हैं जैसे समुद्र में मछलियों का रुदन
फुटपाथियों पर आसमान से नहीं, अक्सर
ज़मीन से फूटता है कहर
बेइंतिहा जानते हैं एक दूसरे को आसमान और फुटपाथिए ।
आसमान से यूँ ही करते नहीं हैं फुटपाथिए
रात-रात भर बातें ।