Last modified on 7 जनवरी 2014, at 17:30

फुल्झड़ी का आग होना / गुलाब सिंह

चिट्ठियों के सिलसिले टूटे
आइने से दूर होकर रह गए चेहरे,
लहर-सी आई-गईं तिथियाँ
दिन किनारों-से मगर ठहरे।

नदी होते घाट पर बैठे हुए पल
धार होते पाँव पानी में किए
घिरे बाहर साँझ के बादल घने
किन्तु भीतर चाँदनी उजली जिए

फूल पीले बीनते, हँसते बबूलों के
क्षण रुपहले रजत-कण-से रेत पर निखरे।

पेड़ पर लौटे परिन्दे पाल नावों के खुले
घरों को मुड़ती निगाहें जाल कंधों पर ढुले
धार के वे पल, नदी के पाँव, पीले फूल वे
फिर न आए मेघ-मन की चाँदनी में जो धुले

बरस बीते टूटते कमज़ोर होते दिन
सूखकर काँटे हुए पल राह में बिखरे।

फुलझड़ी का आग होना-दहकना
हवन-पूजा के धुएँ-सा महकना
फिर न कोयला राख रह जाना
मंत्र की प्रतिध्वनि सरीखे गूँजना

देखना बाकी कि आखिर कौन जुड़ता
यज्ञ के सन्दर्भ से गहरे!