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फूँक दिया मण्डप प्राणों का / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
तोड़ी मन की बीन, क्यों दो साँसों के तार न तोड़े
फूँक दिया मण्डप प्राणों का, सुधियो के रस-कलश न फोड़े
आशा के झूले की पेंगों पर
जीवन झूला करता था
विश्वासों की विभा-कुंज्ज में-
मन सुध-बुध भूला करता था
मैंने तो दुनिया के तेवर झुकी पलक पर झेल लिये थे
लेकिन तुमने आदर्शो के ये थोथे आधार न तोड़े
उठा न घूँघट, खुली न आँखें
फैली नहीं पिकी की पाँखें
हिले न होंठ, न उर ही उछला
उझक-उझक कर भाव न झाँके
कब पर्वत से फूटा झरना, कब पारे-सा हुआ बिखरना
हृदय चुराकर कब दुलाराया, कब ये टूटे धागे जोड़े